कैग ने उठाये शौचालय निर्माण पर सवाल- कहा सरकार कर रही है आंकड़ों की बाजीगरी
 देशभर में ग्रामीणों के घरों में शुष्क शौचालय बनाने के मामले में सरकार के दावे चाहे जो भी कह रहे हों पर भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में सरकार के आंकड़ों को अगर गलत ठहराया गया है तो निश्चित तौर पर सरकार के द्वारा जो आंकड़ेबाजी की जा रही है वह गलतबयानी की श्रेणी में ही आती है। सरकार अब यह दलील देती दिख रही है कि लाभार्थी ने लाभ पाने के लिए झूठ बोला है। सवाल यह उठता है कि भारी भरकम अमले के साथ जब स्थलों का निरीक्षण किया गया था तो इन लाभार्थियों ने सरकारी अफसरान की आंखों में धूल किस तरह झोंकने में सफलता पाई! जाहिर है सब मिली जुली कसरत ही है। कहते है कि देश की अस्सी फीसदी जनता ग्रामीण अंचलों में बसती है। ग्रामीण आंचलों को साफ सुथरा बनाने और खुले में शौच के कलंक को मिटाने के लिए स्वच्छ भारत मिशन के तहत घरों घर शुष्क शौचालय बनाए जाने की कवायद की गई थी। इसके लिए सरकार के द्वारा हर हितग्राही को भारी भरकम इमदाद भी दी जाती है। यह पूरा काम सरकार के जिला पंचायतजनपद पंचायतग्राम पंचायतों में पदस्थ सरकारी अमलों की देखरेखअधीक्षण में किया जाता है। इसके लिए मौके पर जाकर निर्मित शौचालयों के छायाचित्र भी वेब साईट पर अपलोड करने की जवाबदेही अफसरों की है। इतनी फूलप्रूफ व्यवस्था के बाद भी अगर भारी पैमाने पर चूक हो रही है तो इसके लिए हितग्राही से ज्यादा दोष सरकारी सिस्टम को दिया जाना चाहिए। कैग की ताजा रिपोर्ट में सरकार की जमकर बखिया उधेड़ी गई है। नेशनल स्टेटिकल सर्वे की ताजा रिपोर्ट में भी यह बात सामने आई है कि देश में आज भी पच्चीस फीसदी से ज्यादा ग्रामीण भारतीय खुले में शौच करने पर मजबूर हैं। और तो और शहरी क्षेत्रों में झुग्गी बस्तियों के निवासी भी मुंह अंधेरे लोटा लेकर दिशा मैदान जाने पर मजबूर हैं। इस सर्वे में एक बात और उभरकर सामने आई है कि जब तक किसी समस्या को बढ़ा चढ़ाकर पेश नहीं किया जाएगा तब तक सरकार भी उसे समस्या के रूप में चिन्हित नहीं करती है। अगर छोटी मोटी बात के रूप में किसी जरूरत को पेश किया जाता है तो सरकारों के द्वारा उसे सिरे से खारिज करने में देर नहीं की जाती है। सरकार के नीति निर्धारकों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि वे राजधानियों के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर गरीब गुरबों के लिए योजनाएं तैयार करते हैं। इसके लिए जमीनी हकीकत से उन्हें लेना देना नहीं होता है। एक शौचालय बनाने के लिए बारह हजार रूपए की सरकारी मदद दी जाती है। शौचालय का सबसे कम आकार छः फीट गुणा चार फीट अर्थात 24 स्क्वैयर फीट होता है। देश में चल रही निर्माण दर के हिसाब से चौबीस वर्गफीट का पक्का निर्माण कम से कम एक हजार रूपए स्क्वैयर फीट के हिसाब से चौबीस हजार का होता है। इसके अलावा शुष्क शौचालय के लिए सेप्टिक टैंकलेट्रिन शीटपाईप लाईन फिटिंगपानी की टंकी आदि का खर्च जोड़ लिया जाए तो यह खर्च चालीस हजार रूपए तक पहुंच जाता है। अब चालीस हजार रूपए के निर्माण के लिए अगर महज 12 हजार रूपए की इमदाद मिल रही होऔर उसमें से भी हितग्राही को सरकारी सिस्टम को पच्चीस से तीस फीसदी कमीशन देना पड़े तो क्या वास्तव में शौचालय का निर्माण हो पाएगा। इसी के चलते हितग्राही के द्वारा जैसे तैसे निर्माण कराया जाता है और इसकी राशि मिलने के बाद या तो इसे भण्डार या अन्य उपयोग में लाया जाता है। इस तरह कैसे स्चच्छ भारत मिशन परवान चढ़ पाएगा! सरकारी आंकड़ों में जैसे ही फोटो अपलोड होती है वैसे ही वहां शौचालय बना दिखाई देने लगता है। इन शौचालयों की जमीनी हकीकत देखने की फुर्सत किसी को भी नहीं रह जाती है। न ही इसका क्रास चेक वेरीफिकेशन ही कराया जाता है कि वास्तव में शौचालय बना भी है अथवा नहींया उपयोग में आ भी रहा है अथवा नहीं! इतना ही नहीं कैग के द्वारा राज्य सरकारों के द्वारा दिए जाने वाले आंकड़ों पर भी प्रश्न चिन्ह लगाए गए हैं।